धरती का बोझ
धरती का बोझ है ये . दिन भर खाट तोड़ता रहता है. चार दोस्त मिल जाते हैं और बस दिन भर मटरगश्ती. ये भी नहीं सोचता कि माँ बाप ने कितना पैसा खर्च कर दिया इसकी पढाई पर . कैसे कैसे पापड़ नहीं बेले . कितनी हसरतें रह गयी कि बिट्टू पढ़ जायेगा. कुछ बन जायेगा . परिवार पलेगा , बाप का नाम करेगा. पर नहीं .
पता नहीं कितनी जगह तो अर्जी लगा चुका है कितने interview दे चुका है. कहीं से एक चिठ्ठी नहीं आती.
और सारा इलज़ाम हम पर थोपता है, कहता है आजकल सिफारिश चाहिए और वोह भी बड़ी .
सरकारी नौकरी न सही कोई प्राइवेट ही दूंड ले . साहेब बड़े अफसर के ख्वाब नहीं छुटते. और मेहनत मजदूरी में कहे कि शर्म . पर अफसरी का शौक है साहेब को .
पड़े रहेंगे धरती पर बोझ बने.
पता नहीं कितनी जगह तो अर्जी लगा चुका है कितने interview दे चुका है. कहीं से एक चिठ्ठी नहीं आती.
और सारा इलज़ाम हम पर थोपता है, कहता है आजकल सिफारिश चाहिए और वोह भी बड़ी .
सरकारी नौकरी न सही कोई प्राइवेट ही दूंड ले . साहेब बड़े अफसर के ख्वाब नहीं छुटते. और मेहनत मजदूरी में कहे कि शर्म . पर अफसरी का शौक है साहेब को .
पड़े रहेंगे धरती पर बोझ बने.
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